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लघुपाराशरी एवं मध्यपाराशरी

राजेन्द्र मिश्र

प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 11408
आईएसबीएन :8172701004

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अध्याय-1 :  संज्ञा पाराशरी


प्रायः सभी ज्योतिष ग्रन्थों का आरम्भ भाव, राशि तथा ग्रहों के शील व स्वभाव को लेकर होता है। लघुपाराशरी का आरम्भ भी भाव तथा भावाधिपति के गुण-दोष की चर्चा के साथ हुआ है।

1.1 मंगलाचरण


(1) सिद्धान्तम् औपनिषदं शुद्धान्तम् परमेष्ठिनः
शोणाधरं महः किचिद वीणाधर मुपास्महे।।1।।

वेद पुराणों का सारतत्व उपनिषदों में निहित है। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की शक्ति, माँ, सरस्वती जो वीणावादिनी हैं तथा जिनको तेज लाल रंग का या रजोगुणी है, हम उनकी उपासना करते हैं।

टिप्पणी-यहाँ ज्योतिष को वेदांग न मानकर वेदान्त या उपनिषद से जोड़ा है। उपनिषद में 'तत् त्वमसि' वह तू ही है। 'सर्वम् खल्विदम् ब्रह्म'' यह सब कुछ दृश्य-अदृश्य ब्रह्म ही है। 'खंब्रह्म' आकाश ब्रह्म है। त्रिगुण फल अध्याय में महर्षि पाराशर की उक्ति है-

(2) भूतानाम् अन्तकृत् कालः पालकः सृष्टिकारकः
ईशः समस्त लोकानाम् अक्षयो व्यापकः प्रभुः


काल ही संसार में सभी जीवों की उत्पत्ति, पालन और विनाश करने वाला है। वह अविनाशी, सर्वव्यापक, सभी चराचर का नियामक शायद काले को ईश्वर भी है।

(3) अन्य शब्दों में, ‘सत् चित्त आनन्दमय’ प्रभु ही काल व ग्रह बनकर सभी प्राणियों को उनके कर्मानुसार, शुभ या अशुभ फल दिया करते हैं।

(4) सरस्वती बुद्धि और ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी हैं। उनकी कृपा से ही ग्रहों की सूक्ष्म गति और उनके प्रभाव का ज्ञान मनुष्य को प्राप्त होता है। शायद इसी कारण से वेदमाता सरस्वती, जो सभी कला व ज्ञान-विज्ञान की अधिष्ठात्री देवी हैं, की वन्दना की गई है।

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    अनुक्रम

  1. अपनी बात
  2. अध्याय-1 : संज्ञा पाराशरी

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